Alankar In Hindi | अलंकार: परिभाषा, भेद, उदाहरण- 2023 | Best For Hindi Sahitya

Alankar In Hindi | अलंकार: परिभाषा, भेद, उदाहरण – काव्य में अलंकारों का महत्वपूर्ण स्थान है। अलंकारों का इस्तेमाल स्वाभाविक है। अलंकारों का उपयोग किसी तथ्य, अनुभूति, घटना या चरित्र की प्रभावी अभिव्यक्ति करने के लिए किया जाता है।

Alankar/अलंकार की परिभाषा:-

“अलंकार” शब्द का मूल अर्थ है “आभूषण, जिस प्रकार स्त्री की शोभा आभूषण से उसी प्रकार काव्य की शोभा अलंकार से होती है।” भाषा को शब्दार्थ से सुसज्जित और सुंदर बनानेवाले चमत्कारपूर्ण मनोरंजक प्रक्रिया को संक्षेप में अलंकार कहते हैं। काव्य में अलंकारों का महत्वपूर्ण स्थान है। अलंकारों का इस्तेमाल स्वाभाविक है। अलंकारों का उपयोग किसी तथ्य, अनुभूति, घटना या चरित्र की प्रभावी अभिव्यक्ति करने के लिए किया जाता है।

आदिकाल: हिन्दी साहित्य का इतिहास- सिद्ध साहित्य, नाथ साहित्य, जैन साहित्य | Aadikal: Hindi Sahitya ka Itihas | Best Page-1

Alankar In Hindi | अलंकार: परिभाषा, भेद, उदाहरण- 2023- WikiFilmia

“अलंकरोति इति अलंकारः”- जो अलंकृत करता है, वही अलंकार है। भारतीय साहित्य में अनुप्रास, उपमा, रूपक, अनन्वय, यमक, श्लेष, उत्प्रेक्षा, संदेह, अतिशयोक्ति, वक्रोक्ति आदि प्रमुख अलंकार हैं। Example:

भूषण बिना न सोहई – कविता, बनिता मित्त

अलंकारों का उपयोग करने के लिए महत्वपूर्ण परिस्थितियां निम्नलिखित हैं:

  • (क) जब हम किसी तथ्य, वस्तु या चरित्र के स्वरूप को प्रकट करना चाहते हैं, तो अलंकार का प्रयोग किया जाता है।
  • (ख) हम किसी प्रभाव को स्पष्ट करने के लिए बल, निषेध, अत्युक्ति, कार्य-कारण-सम्बन्ध, हेतु-कल्पना आदि के माध्यम से कार्य करते हैं और इस प्रकार अलंकार आता है।
  • (ग) कहीं क्रम, असंगति और संज्ञा, विशेषण, क्रिया आदि के चमत्कारिक प्रयोग अलंकार रहते हैं।
  • (घ) कहीं कथन को विरोध या वैपरीत्य के लक्षणों से प्रवीण बनाना चाहते हैं। और अतिशयोक्ति का उपयोग करते हैं।
  • (ङ) कहीं हम प्रशंसा या निन्दा में अतिरिक्त भाव छिपाकर व्यंग्य से कुछ और कहना चाहते हैं, जिसमें अलंकार भी शामिल होता है।
  • (च) कहीं अलंकार शब्दों की ध्वनि या अर्थ के चमत्कारिक प्रयोगों से बनाया जाता है। आदि

अलंकार वाणी के विभूषण हैं। अलंकारों के साथ सामान्य बातें एक विशिष्ट सुख से भर जाती हैं। इसलिए अलंकार एक चमत्कारपूर्ण उक्ति है, न कि एक साधारण कथन। जिस उक्ति में बाँकपन है, वह अलंकार है। इसलिए अलंकार शब्द और उसका अर्थ इसी आधार पर अलग किए जाते हैं। लेकिन ये पूरी तरह से अलग-अलग आएँगे, ऐसा नहीं है। बहुत से शब्दालङ्कारों में अर्थालङ्कारों की आभा होती है और बहुत से शब्द-चमत्कार होते हैं।

NEP 2020 In Hindi (National Education Policy) | राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 | NPE 1986 / NPE 1968 Also

Alankar In Hindi | अलंकार: परिभाषा, भेद, उदाहरण- 2023- WikiFilmia

अलंकार के भेद या प्रकार:-

  1. शब्दालंकार
  2. अर्थालंकार
  3. उभयालंकार

Hindi Sahitya Ka Itihas pdf | हिंदी साहित्य का इतिहास : काल विभाजन, नामकरण, प्रवृत्तियाँ | Best Page Part-1

1. शब्दालंकार

Alankar In Hindi | अलंकार: परिभाषा, भेद, उदाहरण- 2023 | Best For Hindi Sahitya

शब्दालंकार उस अलंकार को कहते हैं जिसमें शब्दों के प्रयोग से कोई चमत्कार होता है और उन शब्दों के स्थान पर समानार्थी शब्दों को रख देने से वह चमत्कार समाप्त होता है। शब्दावली के प्रमुख रूपों में शामिल हैं-1. अनुप्रास, 2. चमक, 3. वक्रोकि, 4. श्लेष, 5. चित्र

 

अनुप्रास

अनुप्रास एक अलंकार है जिसमें वर्णों या व्यज्जनों की किसी प्रकार की समानता होती है। इसके पाँच भेद हैं- 1. छेक, 2. वृत्ति 3. श्रुति 4. अन्त्य, 5. लाट।

छेकानुप्रास- जहाँ पर अनेक व्यञ्जनों या वर्णों की एक बार समता हो, वहाँ छेकानुप्रास होता है, यथा-

जन रंजन भजन दनुज, मनुज रूप सुर भूप ।

विश्व बदर इव धृत उदर, जोवत सोवत सूप ॥

इसमें जन, नुज, दर, वत की एक बार समता है।

वृत्त्यनुप्रास- वृत्त्यनुप्रास एक वर्ण या कई वर्णों को क्रमानुसार कई बार आवृत्ति या समता करने में होता है। इस अनुप्रास का नाम वृत्ति से आया है। तीन वृत्तियाँ हैं—

  • उपनागरिका या मधुरा– मधुर वर्णों जैसे- सानुनासिक, नम आदि तथा र उ उ उ को छोड़कर अन्य वर्णों की आवृत्ति होती है।
  • कोमला- य, र, ल, व, वर्णों की आवृत्ति तथा अल्प समास होते हैं।
  • परुषा- ओजपूर्ण वर्णों जैसे, ट, ठ, ड, ढ तथा संयुक्ताक्षरों की आवृत्ति होती है।

वृत्त्यनुप्रास का एक सुन्दर उदाहरण है, यह कोमला का उदाहरण है-

विधन विदारण बिरद बर, बारन बदन बिकास।

बर दे बहु बाड़े विसद, बाणी बुद्धि विलास।।

यहाँ पर तीनों ही वृत्तियों के उदाहरण दिये हैं-

उपनागरिका वृत्ति

रंजन, भय भंजन, गरब गंजन, अंजन नैन ।

मानस भंजन करन जन, होत निरंजन ऐन ॥

कोमला वृत्ति

हिलते दुमदल कल किसलय देती गलबही डाली।

फूलों का चुम्बन छिड़ती मधुषों की तान निराली ॥

उदाहरण में ‘डाली’ और ‘छिड़ती’ में ड और ड़ का प्रयोग इस वृत्ति के विरुद्ध है, पर स और ल का बाहुल्य कोमला का संकेत करता है।

 

परुषा वृत्ति

सब जाति फटी दुख की दुपटी, कपटी न रहैं जहँ एक घटी

निघटी रुचि मींचु घटी हू घटी, सब जीव जतीन की छूटी तटी ।

श्रुत्यनुप्रास – श्रुत्यनुप्रास में एक ही स्थान (जैसे कण्ठ, तालु आदि) से उच्चरित होने वाले वर्णों की समानता होती है। यथा-

निसिवासर सात रसातल ला सरसात घने घन बन्धन नाख्यौ ।

अन्त्यानुप्रास– छन्द के अन्तिम चरण में स्वर व्यंजन की समता अन्त्यानुप्रास कहलाती है। इसके भेद सर्वान्त्य, समान्त्य-विषयान्त्य, समान्त्य-विषमान्त्य तथा सम- विषमान्त्य हैं, जिनमें क्रमशः सभी चरणों में अन्त के वर्णों में समानता, सम चरणों अर्थात् दूसरे, चौथे चरणों में अन्त के वर्णों में समानता, विषम अर्थात् प्रथम, तृतीय आदि चरणों में अन्त के वर्णों में समानता तथा समविषमों में अन्त्य की समानता पायी जाती है। उदाहरण-

कुन्द इन्दु सम देह, उमा-रमन करुना अयन ।

जाहि दीन पर नेह, करहु कृपा मर्दन मयन ॥

यह समान्त्य – विषमान्त्य का उदाहरण है। उसी प्रकार अन्य उदाहरण हैं। सवैया प्रायः सर्वान्त्य होता है, दोहा प्रायः समान्त्य, सोरठा विषमान्त्य, चौपाई सम-विषमान्त्य होती है।

 

लाटानुप्रास- लाट देश (दक्षिणी गुजरात) के लोगों को अधिक प्रिय होने से यह लाटानुप्रास कहलाता है। जहाँ पर शब्द और अर्थ एक ही रहते हैं, परन्तु अन्य पद के साथ अन्वय करते ही तात्पर्य या अभिप्राय भिन्न रूप से प्रकट होता है। उदाहरण-

राम हृदय जाके नहीं, विपति सुमंगल ताहि ।

राम हृदय जाके, नहीं बिपति सुमंगल ताहि ॥

 

यमक

जहाँ पर शब्दों की अनेक बार भिन्न आवृत्ति हो और हर बार  भिन्न अर्थों में  हों , वहाँ पर यमक अलंकार माना जाता है; जैसे-

तो पर वारो उरबसी, सुनु राधिके सुजान ।

तू मोहन के उर बसी, ह्वै उरवसी समान ।।

यहाँ पर उरवसी की अनेक अर्थों में आवृत्ति है।

 

श्लेष

श्लेष शब्द और अर्थ दोनों ही प्रकार के अलंकारों में माना जाता है। जहाँ पर ऐसे शब्दों का प्रयोग हो जिनसे एक से अधिक अर्थ निकलते हों, वहाँ पर श्लेष अलंकार होता है। जहाँ पर दूसरे अर्थ भी वक्ता के द्वारा अभिप्रेत होते हैं, वहाँ पर यह अर्थालंकार ही है; परन्तु जहाँ पर वक्ता के द्वारा एक ही अर्थ अभिप्रेत होने पर दूसरे अर्थ श्रोता के मन पर प्रकट होते हैं वहाँ श्लेष शब्दालकार होता है। यही कारण है कि शब्द-विशेष का प्रयोग ही चमत्कार है और उसका पर्यायवाची शब्द रखने से चमत्कार समाप्त हो जाता है, इसे शब्दालंकार मानना चाहिए। इस तरह श्लेष शब्दालंकार है। उदाहरण-

कुजन पाल गुनवर्जित अकुल अनाथ ।

कहाँ कृपानिधि राउर कस गुनगाथ ॥

इसी प्रकार-

चिरजीवी जोरी जुरे, क्यों न सनेह गंभीर ।

को घटि ये वृषभानुजा, वे हलधर के बीर ॥

 

वक्रोक्ति

जहाँ पर श्लेषार्थी शब्द से अथवा काकु (कण्ठ की विशेष ध्वनि) के कारण प्रत्यक्ष अर्थ के स्थान पर दूसरा अर्थ कल्पित किया जाय, वहाँ पर वक्रोक्ति होती है। यह दो प्रकार की है—

  • एक श्लेष वक्रोक्ति,
  • दूसरी काकु वक्रोक्ति।

श्लेष वक्रोक्ति- जहाँ पर एक से अधिक अर्थवाले शब्द से वक्ता जो कहना चाहता है उससे अलग अर्थ श्रोता ग्रहण करे, वहाँ पर श्लेष वक्रोक्ति होती है, जैसे-

हैं री लाल तेरे? सखी ऐसी निधि पाई कहाँ?

है ये खगयान? को हो तो नहीं पाले हों?

हैं री गिरिधारी? है हैं रामदल माँहि कहूँ?

हैं री घनश्याम ? कहूँ सीत सरसाले हैं ।

काकु वक्रोक्ति- जहाँ पर कंठध्वनि  के कारण दूसरा अर्थ ध्वनित होता है वहाँ काकु वक्रोक्ति होती है।

मैं सुकुमारि नाथ जोगू तुमहिं उचित तप मोकहँ भोगू

यहाँ पर मोटे शब्दों के काकु युक्त उच्चारण से निषेधात्मक या विपरीत अर्थ निकलता है।

 

पुनरुक्तिप्रकाश

जहाँ भाव को अधिक प्रभावपूर्ण और रुचिकर बनाने के लिए शब्द का अनेक बार प्रयोग किया जाता है।

मधुमास में दासजू बीस विसे मनमोहन आइहैं आइहैं आइहै ।

उजरे इन भौनन को सजनी सुख पुंजन छाइहैं छाइहैं छाइहैं ।

अब तेरी सों ऐरी न संक एकक विधा सब जाइहैं जाइहैं जाइहैं ।

घनश्याम प्रभा लखिकै सखियाँ अँखियाँ सुख पाइहैं पाइहैं पाइहैं ॥

पुनरुक्तिवदाभास

पुनरुक्तिवदाभास में समानार्थी शब्दों के प्रयोग से पुनरुक्ति-सी जान पड़ती है, पर वास्तव में पुनरुक्ति होती नहीं है।

अली भर गूँजन लगे, होन लगे दल पात ।

जहँ तहँ फूले रूख तरु, प्रिय प्रीतम किमि जात ॥

वीप्सा

वीप्सा में आदर, घृणा आदि का प्रकाशन शब्दों की पुनरुक्ति द्वारा होता है।

शिव शिव शिव ! कहते हो यह क्या, ऐसा फिर मत कहना ।

राम राम! यह बाट भूलकर मित्र कभी मत गहना ॥

Malik Muhammad Jayasi | मलिक मुहम्मद जायसी से परिचय एवं रचनाऐं-1 Best Page

अर्थालंकार

Alankar In Hindi | अलंकार: परिभाषा, भेद, उदाहरण- 2023 | Best For Hindi Sahitya

किसी शब्द-विशेष के कारण अर्थालंकार में चमत्कार नहीं रहता। यदि समानार्थी शब्द का स्थान दूसरा शब्द ले लिया जाए, तो भी अलंकार बना रहेगा। क्योंकि यह चमत्कार व्यावहारिक है ये अलंकार बहुत अधिक हैं, इसलिए उनकी संख्या नहीं बताई जा सकती। अलग-अलग विद्वानों ने अलग-अलग संख्याओं को मान्यता दी है। यह चमत्कार जिन आधारों पर आधारित रहता है, वे हैं— साम्य, विरोध, क्रम या शृङ्खला, न्याय, कारण-कार्य-सम्बन्ध, निषेध, गूढार्थप्रतीति आदि। इन्हीं आधारों पर अलंकारों के अलग-अलग वर्ग बनाए जा सकते हैं, जिनमें अलंकारों के अलग-अलग रूप आते हैं।

  • साम्यमूलक अलंकार- साम्य रूप गुणसाम्य से सम्बन्धित होते हैं, जैसे- उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक, भ्रम, सन्देह, प्रतीप, अनन्वय, स्मरण, उपयोपमा आदि।
  • वैषम्य या विरोधमूलक- विषमता या विरोध का चमत्कारपूर्ण प्रकाशन इन – अलंकारों में रहता है, जैसे- असंगति, विषम, विरोधाभास आदि।
  • क्रम या श्रृङ्खलामूलक- कारणमाला, एकावली, सार आदि।
  • न्यायमूलक – यथासंख्य, काव्यलिंग, तद्गुण, लोकोक्ति आदि ।
  • कारण-कार्य-सम्बन्धमूलक – विभावना, हेतूत्प्रेक्षा, अतिशयोक्ति आदि ।
  • निषेधमूलक- अपहृति, विनोक्ति, व्यतिरेक आदि
  • गूढार्थ प्रतीतिमूलक- पर्यायोति, समासोक्ति, मुद्रा, व्याजनिन्दा व्याजस्तुति, सूक्ष्म आदि।

 

उपमा

अलंकारों में उपमा महत्वपूर्ण है।

भूषण सब भूषनति में, उपमहिं उत्तम चाहि ।

याते उपमहिं आदि है, बरनत सकल नियाहि ॥

किसी वस्तु की रूप-गुण-संबंधी विशेषता को स्पष्ट करने के लिए उसकी समता को बताना, दूसरी परिचित वस्तु से, जिसकी विशेषताएँ अधिक स्पष्ट हैं, उपमा अलंकार कहते हैं। उपमा के चार अंग है- उपमेय, उपमान, वाचक और धर्म ।

  1. उपमेय — जिस वस्तु या पदार्थ की समता की जाती है या उपमा दी जाती है, वह उपमेय कहलाता है।
  2. उपमान- जिस वस्तु या पदार्थ की समता की जाती है या उपमा दी जाती उसे उपमान कहते हैं।
  3. वाचक- उपमेय और उपमान की समता प्रकट करनेवाले शब्द वाचक कहलाते हैं।
  4. धर्म- उपमेय और उपमान में जो रूप-गुण-कर्म का साम्य दिखाया जाता है वह धर्म है।

उदाहरणार्थ- ‘पीपर पात सरिस मन डोला’ में मन उपमेय, पीपर पात उपमान सरिस वाचक और डोलना धर्म है।

जिस उपमा के चारों अंग प्रत्यक्ष है उसे पूर्णोपमा कहते हैं। इन अंगों के लुप्त होने से विभिन्न प्रकार की लुप्तोपमा होती है, जैसे- वाचकलुप्तोपमा, धर्मलुप्तोपमा, वाचकधर्मलुतोपमा आदि। यहाँ के उदाहरण दिये जाते है-

उपमेयलुप्ता –

साँवरे गोरे घट छटा से बिह, मिथिलेस की बाग चली में

उपमानलुप्ता-

सुबरन बरन कमल कोमलता, सुचि सुगंध इक होय ।

तब तुलनीय होय तव मुख हो, जग अस वस्तु न कोय ॥

वाचकलुप्ता- 

नील सरस्थाम, तस्न अस्नानयन

धर्मलुप्ता –

कुन्द इन्दु सम देह।

इनके अतिरिक्त भी उपमा के अनेक रूप माने गये है जिनमें कुछ प्रमुख रूपों पर यहाँ विचार किया गया है।

मालोपमा-  यह वहाँ होती है जहाँ पर एक हो उपमेय के बहुत से उपमान माला के समान आते जाते है; जैसे-

तरुवर के छपानुवाद सी

उपमा-सी भावुकता-सी,

अविदित भावाकुल भाषा-सी,

कटी-टी नव कविता-सी

छाया के ये विभिन्न उपमान हैं जो एक साथ गुंफित है।

 

रसनोपमा — जिस उपमा में उपमान या उपमेय उत्तरोत्तर उपमेय या उपमान होते जाते हैं, वह रसनोपमा है, जैसे-

बच सी माधुरि मूरती, मूरति सी कलकीति ।

कीरति लौ सब जगत में, छाइ रही तव नीति ॥

अनन्वयोपमा- जहाँ उपयुक्त उपमान न मिल सकने के कारण स्वयं उपमेय को ही उपमान मान लिया जाता है, जैसे-

लही न कतहुँ हारि हिय मानी ।

इन सम ये उपमा उर आनी ॥

उपमेयोपमा — जहाँ उपमेय और उपमान एक दूसरे के उपमान और उपमेय हो जाते हैं, जैसे—

भूपर भाऊ भुवप्पति को कर सों मन और मन सों कर ऊँचो ।

अनन्वयोपमा- उपमान के अभाव में जब उपमेय को ही उसका उपमान कहा जाता है तब अनन्वय अलंकार होता है; जैसे-

हियौ हरति औ करति अति, ‘चिन्तामनि’ चित चैन ।

वा सुन्दरि के मैं लखे, वाही के से नैन ॥

स्मरण

किसी सदृश वस्तु को देखकर जहाँ पूर्वानुभूत वस्तु का स्मरण हो जाता है, वहाँ पर स्मरणालंकार हो जाता है, जैसे-

बीच बास करि जमुन नहाये। निरखि नीर लोचन जल छाये ॥

सघन कुंज छाया सुखद, सीतल मंद समीर । मन है जात अज वहै, वा जमुना के तीर ॥

भ्रम या भ्रान्तिमान

जहाँ पर प्रस्तुत को देखने से सादृश्य के कारण अप्रस्तुत का भ्रम हो जाय, वहाँ पर भ्रम अलंकार होता है; जैसे-

पायें महावर देन को नाइन बैठी आय

फिर फिर जानि महावरी, एँड़ी मोड़त जाय ॥

परत भ्रमर सुक तुंड पर, भ्रम धरि कुसुम पलास ।

धलि ताको पकरन चहत, जंबू फल की आस ||

सन्देह

किसी वस्तु को देखकर जहाँ साम्य के कारण दूसरी वस्तु का संशय हो जाता है, पर निश्चय नहीं होता, वहाँ सन्देह अलंकार होता है। कि, क्या, धौं, किमी, या, अथवा- इसके वाचक शब्द हैं, जैसे-

बालधी विसाल विकराल ज्वाल जाल मानौ

लंक लीलिबे को काल रसना पसारी है।

कैध व्योम बीथिका भरे हैं भूरि धूमकेतु,

बीररस बीर तरवारि सी उधारी है ।

तुलसी सुरेस चाप कैधौं दामिनि कलाप

कैध चली मेरु ते कुसानु सरि भारी है।

देखे जातुधान जातुधानी अकुलानी कहैं.

कानन उजार्यो अब नगर प्रजारी है ॥

विशेष- सन्देह अलंकार में वास्तविक वस्तु का अनिश्चय रहता है; परन्तु भ्रम में किसी दूसरी वस्तु में अन्य वस्तु होने का निश्चय हो जाता है— यह दोनों में भेद है। स्मरण में सदृश वस्तु को देखकर दूसरी वस्तु की याद आ जाती है।

 

प्रतीप

प्रतीप का तात्पर्य होता है उलटा या विपरीत। यहाँ उपमा का उलटा रूप दिखाया जाता है। जहाँ पर प्रसिद्ध उपमान को उपमेय और उपमेय को उपमान सिद्ध करके चमत्कारपूर्वक उपमेय या उपमान की उत्कृष्टता दिखायी जाती है, वहाँ पर प्रतीप होता है। प्रतीप के 5 भेद माने जाते हैं।

प्रथम प्रतीप – जहाँ पर प्रसिद्ध उपमान को उपमेय के रूप में वर्णित किया जाय, वहाँ पर प्रथम प्रतीप होता है-

पायन से गुललाला जपादल पुंज बंधूक प्रभा बिथर है। हाथ से पल्लव नौल रसाल के लाल प्रभाव प्रकाश करै है ।

लोचन की महिमा सी त्रिवेनी लखे ‘लजियम’ त्रिताप हरे है । मैथिली आनन से अरविंद कलाधर आरसी जानि परै है

द्वितीय प्रतीप-  जहाँ पर प्रसिद्ध उपमान को उपमेय बनाकर, वास्तविक उपमेय का अनादर किया जाता है, वहाँ द्वितीय प्रतीप होता है; जैसे-

का घूंघट मुख मूँद नवला नारि

चंद सरग पर सोहत यहि अनुहारि ॥

तृतीय प्रतीप – जहाँ पर प्रसिद्ध उपमान का उपमेय के आगे निरादर होता है, वहाँ पर तृतीय प्रतीप होता है, जैसे-

गरब करति कत चाँदनी, हीरक छीर समान ।

फैली इती समाज गत, कीरति सिवा खुमान ॥

चतुर्थ प्रतीप — जहाँ पर उपमेय की बराबरी में उपमान न तुल सके, वहाँ पर चतुर्थ प्रतीप होता है; जैसे-

नल वारों नैननि मैं बलि वारों बैननि मै

भीम वारों भुजनि मैं, करन करन मैं ।

पञ्चम प्रतीप- उपमेय की समता में जहाँ उपमान व्यर्थ हो जाता है; उसका महत्त्व और उपयोगिता असिद्ध हो जाती है, यहाँ पर पञ्चम प्रतीप होता है; जैसे-

छाँह करें छिति मंडल में सब ऊपर यों मतिराम’ भये हैं।

पानिप को सरसावत हैं सिगरे जग के मिटि ताप गये हैं ।

भूमि पुरंदर भाऊ के हाथ पयोदन ही के सुकाज ठये है ।

पंथिन के पथ रोकिवे को घने बारिद वृंद वृथा उनये हैं ॥

नोट- प्रतीप में तुलना पर जोर रहता है, जिस गुण में तुलना होती है उसी में उपमान हीन या असिद्ध हो जाता है। व्यतिरेक में विशेषता पर जोर है। कुछ गुणों में साम्य होने पर भी किसी अन्य विशेषता में वह उपमान या दूसरे उपमेय से बढ़कर सिद्ध किया जाता है। यही दोनों में अन्तर है।

 

रूपक

अब प्रस्तुत या उपमेय पर अप्रस्तुत या उपमान का आरोप होता है तब रूपक अलंकार होता है। यह आरोप दो प्रकार का होता है, एक अभेदता के द्वारा और दूसरा तद्रूपता के द्वारा इस आधार पर रूपक के दो भेद हैं-

1- अभेद रूपक, 2-तद्रूप रूपक, इनमें से प्रत्येक के तीन भेद माने गये हैं- अधिक, हीन और सम ।

अभेद रूपक – अभेद रूपक में उपमेय और उपमान एक दिखाये जाते हैं, उनमें कोई भी भेद नहीं रहता।

तद्रूप रूपक- इसमें उपमान, उपमेय का रूप तो धारण करता है, पर एक नहीं हो पाता। उसे और या दूसरा कहकर व्यक्त किया जाता है।

 

अधिक अभेद रूपक- जिस अभेद रूपक में उपमेय, उपमान से अधिक दिखाया जाता है फिर भी अभेदता रहती है, वह अधिक अभेद रूपक है, जैसे-

नव विधु विमल तात जस तोरा रघुबर किंकर कुमुद चकोरा ।

उदित सदा अथइहि कबहूँ ना घटिहि न जग नभ दिन-दिन दूना ॥

हीन अभेद रूपक- रूपक जहाँ उपमेय में उपमान से कुछ कमी होने पर भी अभेदता रहती है, वहाँ हीन अभेद रूपक होता है, जैसे-

दुइ भुज के हरि, रघुबर सुंदर भेस।

सम अभेद रूपक- जहाँ पर उपमेय और उपमान में पूर्ण साम्य होते हुए एकरूपता या अभेदता दिखलायी जाय, वहाँ पर सम अभेद रूपक होता है, जैसे-

उदित उदय गिरि मंच पर रघुबर बालपतंग ।

बिकसे संत सरोज सब, हरषे लोचन भृंग ॥

अधिक तद्रूप रूपक – यहाँ उपमेय और उपमान की तदूपता दिखाते समय उपमेय में कोई बात अधिक हो, वहाँ पर अधिक तद्रूप रूपक होता है, जैसे-

लगति कलानिधि चाँदनी निसि ही मैं अभिराम ।

दीपति वा मुखचन्द की, दिपति आठहूं जाम ॥

हीन तद्रूप रूपक- जहाँ उपमेय में उपमान से कुछ कम गुण होने पर भी दोनों में तदूपता दिखलाई जाती है, वहाँ होन तद्रूप होता है, जैसे-

एक जीभ के लछिमन दूसर सेस।

सम तद्रूप रूपक – जहाँ उपमेय और उपमान की पूर्ण समानता होने पर तद्रूपता अर्थात् एक का दूसरा रूप दिखाया जाता है, वहाँ मम तद्रूप रूपक होता है, जैसे-

दृग कुमुदन को दुखहरन, सीत करन मन देस ।

यह बनिता भुवलोक की, चन्द्रकला सुभ बेस ॥

इनके साथ ही रूपक के तीन भेद और माने गये है- (1) सांग, (2) निरंग, (3) परंपरित

ये भेद, अभेद और तदूप दोनों ही में हो सकते हैं, पर अधिकतर अभेद रूपक में ही ये अधिक देखे जाते हैं।

सांग (सावयव) रूपक- जहाँ पर उपमान का उपमेय में अंगों सहित आरोप होता है, वहाँ पर सांग रूपक होता है, जैसे-

नारि कुमुदिनी अवध सर, रघुबर बिरह दिनेस ।

अस्त भये विकसित भई निरख राम राकेस

निरंग (नरवयव ) रूपक – जहाँ सम्पूर्ण अंगों का साम्य नहीं, वरन् केवल एक अंग का ही आरोप किया जाता है, जैसे–

हरि मुख पंकज, ध्रुव धनुष, खंजन लोचन मित्त ।

बिंब अधर, कुण्डल मकर, बसे रहत मो चित्त ॥

परंपरित रूपक – जहाँ पर प्रधान रूपक एक अन्य रूपक पर आश्रित रहता है, और वह बिना दूसरे रूपक के स्पष्ट नहीं होता, वहाँ पर परम्परित रूपक माना जाता है,

नागर नगर अपार, महा मोह तम मित्र से ।

तृष्णा-लता कुठार, लोभ समुद्र अगस्त्य से ॥

 

उत्प्रेक्षा

उत्प्रेक्षा उत् + प्र + ईक्षा अर्थात् प्रकृष्ट रूप से देखना। जहाँ पर उपमेय या प्रस्तुत की उत्कृष्ट उपमान या अप्रस्तुत के रूप में सम्भावना या कल्पना की जाय, वहाँ उत्प्रेक्षा अलंकार होता है। यह सम्भावना वस्तु रूप में, हेतु रूप में और फल रूप में की जा सकती है। अतः उत्प्रेक्षा के तीन प्रधान भेद हैं- वस्तूत्प्रेक्षा, हेतूत्प्रेक्षा और फलोत्प्रेक्षा ।

वस्तुत्प्रेक्षा- जहाँ पर किसी वस्तु या विषय के स्वरूप स्पष्टीकरण के लिए अप्रस्तुत या उपमान की सम्भावना प्रस्तुत की जाय, वहाँ वस्तूत्प्रेक्षा होती है, जैसे-

सोहत ओढ़े पीतपट, स्याम सलोने गात ।

मन नीलमनि सैल पर आतपपर्यो प्रभात ||

हेतूत्प्रेक्षा- जहाँ पर अहेतु की हेतु रूप में सम्भावना या कल्पना की जाती है, वहाँ पर हेतूत्प्रेक्षा होती है, जैसे-

हँसत दसन अस चमके, पाहन उठे छरकि

दारिउँ सरि जो न करि सका, फाटेउ हिया दरक्कि ॥

फलोत्प्रेक्षा— जहाँ पर अफल में फल की कल्पना की जाती है अर्थात् जो वास्तविक फल न हो उसे फल के रूप में कल्पित किया जाता है, वहां पर फलोत्प्रेक्षा होती है, जैसे-

तो पद समता को कमल, जल सेवत इक पाँय।

प्रतीयमाना या गम्योत्प्रेक्षा- जिस उत्प्रेक्षा में वाचक शब्द लुप्त रहता है, उसे प्रतीयमाना या गम्योत्प्रेक्षा कहते हैं, जैसे-

वह थी एक विशाल मोतियों की लड़ी। स्वर्ग कण्ठ से छूट धरा पर गिर पड़ी।

सह न सकी भवताप अचानक गल गयी। हिम होकर भी द्रवित रही कल जलमयी ॥

यहाँ पर गंगा की उक्त रूप में कल्पना की गयी है, कल्पनावाची शब्द ‘मानो’ लुप्त है, अतः गम्योत्प्रेक्षा है।

 

अपहृति

अपहति प्रधानतया प्रतिषेध पर निर्भर करता है। साहित्यदर्पणकार ने इसका लक्षण दिया है- ‘प्रकृतं प्रतिषिध्यान्यस्थापनं स्यादपहुतिः।” जहाँ पर प्रकृत, प्रस्तुत या उपमेय का प्रतिषेध करके अन्य अर्थात् अप्रस्तुत या उपमान की स्थापना की जाय, वहाँ अपह्नुति अलंकार होता है। इस अलंकार के छः भेद माने गये हैं-

शुद्ध अपहृति- जहाँ पर प्रकृत, उपमेय या सत्य पदार्थ को छिपाकर अन्य अप्रस्तुत का स्थापन किया जाय, वह शुद्धापद्धति अलंकार है, जैसे-

यह नहि जावक है सखी, पिय अनुराग प्रमान ।

हठि लाग्यो तव पगन मैं मेटत मान गुमान ॥

हेतु अपहृति- जहाँ पर प्रस्तुत का प्रतिषेध और अप्रस्तुत का आरोप हेतु देते हुए किया जाय, वहाँ हेत्वपद्धति अलंकार होता है, जैसे-

रात माँझ रबि होत नहि, ससि नहि तीव्र सुलाग ।

उठी लखन अवलोकिये, बारिधि सों बड़वाग ॥

ये नहिं फूल गुलाब के, दाहत हियो अपार ।

बिनु घनश्याम अराम में, लागी दुसह दवार ॥

पहले आँखों में थे, मानस में कूद मन प्रिय अब थे ।

छींटे वही उड़े थे, बड़े-बड़े अश्रु ये कब थे ?

पर्यस्त अपहृति- जहाँ पर उपमेय या वास्तविक धर्मी में धर्म का प्रतिषेध करके अन्य में उसका आरोप किया जाता है, वहाँ पर पर्यस्तापद्धति अलंकार होता है, जैसे-

आपने करम करि हाँही निबाहाँगो,

जौब हौंही करतार करतार तुम काहे के ।

भ्रांति अपहृति- किसी कारणवश भ्रम हो जाने पर जब सत्य बात कहकर भ्रम का निवारण किया जाता है, तब भ्रांत्यपहुति होती है, जैसे-

आली आली लखि डरपि जनि टेरहु नंदलाल ।

फूले सघन पलास ये नहिं दावानल ज्वाल ॥

डहकु न है उजियरिया, निसि नहिं घाम ।

जगत जरत अस लाग, मोहि बिनु राम ॥

छेकापहृति- जहाँ पर वर्णन करते समय श्रोता गुप्त बात समझ जाता है, और उसका चतुराई से निषेध करके मिथ्या समाधान किया जाता है, वहाँ पर छेकापद्धति अलंकार होता है, जैसे-

अर्ध निसा वह आयो भौन। सुन्दरता बरनै कहि कौन ।

निरखत ही मन भयो अनंद क्यों सखि साजन ? नहिं सखि चंद ॥

कैतवापहृति- जहाँ पर प्रस्तुत का प्रत्यक्ष निषेध न करके चतुराई से किसी व्याज से (मिस, छल आदि शब्दों द्वारा) प्रतिषेध किया जाता है, वहाँ पर कैतवापह्नुति होती है, जैसे—

लालिमा श्री तरवानि के तेज में सारदा लों सुखमा की निसेनी ।

नूपुर नीलमनीन जड़े जमुना जगै जौहर में सुख दैनी ।

यौं लछियम छटा नख नौल तरंगिनी गंग प्रभा फलपैनी ।

मैथिली के चरणाम्बुज व्याज लसै मिथिला मग मंजु त्रिवेनी ॥

अतिशयोक्ति

जहाँ पर लोक सीमा का अतिक्रमण करके किसी विषय का वर्णन होता है, वहाँ पर अतिशयोक्ति अलंकार माना जाता है। इसके सात भेद आगे दिये जाते हैं-.

1. रूपकातिशयोक्ति- जहाँ पर केवल उपमान या अप्रस्तुत का कथन किया जाता है और उसी से उपमेय का बोध होता है, वहाँ पर रूपकातिशयोक्ति अलंकार होता है, जैसे-

हिलते डुमदल कल किसलय

देती गलबाहीं डाली

फूलों का चुंबन छिड़ती

मधुपों की तान निराली ।

2. सापह्नवातिशयोक्ति — इस अलंकार को कुछ ही आचार्यों ने माना है। जिस प्रकार प्रथम में रूपक अतिशय रूप में है, उसी प्रकार यहाँ अपह्नुति अतिशय रूप में वर्णित होता है, जैसे-

अली कमल तेरे तनहि, सर में कहत अयान ।

3. भेदकातिशयोक्ति – जहाँ उपमेय या प्रस्तुत का अन्यत्व वर्णन किया जाता है अर्थात् अभिन्नता में भी भिन्नता दिखलायी जाती है, वहाँ पर भेदकातिशयोक्ति अलंकार होता है, जैसे-

और कछु चितवनि चलनि, और मृदु मुसकानि ।

और कछु सुख देते हैं, सकैं न चैन बखानि ॥

अनियारे दीरघ नयन, किती न तरुनि समान ।

वह चितवन और कछू, जेहि बस होत सुजान ॥

4. संबंधातिशयोक्ति- जहाँ पर संबंध या योग्य में असंबंध या अयोग्यता तथा असंबंध या अयोग्य में संबंध या योग्यता दिखायी जाय, वहाँ पर संबंधातिशयोक्ति अलंकार होता है, जैसे-

(क) योग्य में अयोग्यता-

श्री रघुनाथ के हाथन सामुहें कल्पलता सनमान करै कौ।

(ख) अयोग्य में योग्यता-

भूलि गयो भोज, बलि विक्रम बिसरि गये,

जाके आगे और तन दौरत न दीदे हैं।

राजा राइ राने, उमराइ उनमाने, उन

माने निज गुन के गरब गिरवीदे हैं ।

सुजस बजाज जाके सौदागर सुकवि,

चलेई आयें दसहूँ दिसान ते उनींदे हैं।

भोगीलाल भूप लाख पाखर लेवैया, जिन,

लाखन खरचि रुचि आखर खरीदे हैं ॥

यहाँ पर भोज आदि जो भुला देने के अयोग्य हैं, भोगीलाल के सामने भुला देने योग्य ठहराये गये हैं।

5. चपलातिशयोक्ति- जहाँ पर हेतु की चर्चामात्र या ज्ञानमात्र से कार्य सम्पन्न हो जाता है, वहाँ पर चपलातिशयोक्ति होती है, जैसे-

तब सिव तीसर नैन उघारा चितवत काम भयेउ जरि छारा ॥

आयो आयो सुनत हो, सिव सरजा तव नांव

बैरि नारि दृग जलन सों, बूड़ि जात अरि गाँव ॥

6. अक्रमातिशयोक्ति — जहाँ पर कारण और कार्य एक ही साथ होते हैं वहाँ पर अक्रमातिशयोक्ति होती है, जैसे-

पाँव के धरत अति भार के परत,

भयो एक ही परत मिलि सपत पताल को।

7. अत्यंतातिशयोक्ति- जहाँ पर कारण के पहले ही कार्य सम्पन्न होने का वर्णन किया जाता है, वहाँ पर अत्यन्तातिशयोक्ति होती है, यथा-

धूमधाम ऐसी रामचन्द्र वीरता की मची,

लछिराम रावन सरोष सरकस तें ।

बैरी मिले गरद मरोरत कमान गोसे,

पीछे कढ़े बान तेज मान तरकस तें ॥

प्रतिवस्तूपमा

जहाँ पर निरपेक्ष उपमेय और उपमान वाक्यों में शब्दभेद से एक ही धर्म का कथन होता है, वहाँ पर प्रतिवस्तूपमा अलंकार होता है, जैसे-

पिसुन बचन सज्जन चितै, सकै न फेरि न फारि ।

कहा करै लगि तोय मैं तुपक तीर तरवारि ॥

दृष्टान्त

जहाँ दोनों सामान्य या दोनों विशेष वाक्य में बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव होता है, वहाँ पर दृष्टान्त अलंकार होता है, जैसे-

पग प्रेम नंदलाल के, हमैं न भावत भोग ।

मधुप राजपद पाय के, भीख न माँगत लोग ॥

इसमें ज्यों, जैसे-  वाचक शब्द लग जाने से उदाहरण अलंकार माना जाता है। दृष्टान्त और प्रतिवस्तूपमा में भी बहुत थोड़ा अन्तर है। प्रतिवस्तूपमा में उपमेय उपमान वाक्यों में एकधर्मता होती है, दृष्टान्त में उपमेय या उपमान वाक्यों में बिम्ब प्रतिविम्ब भाव होना चाहिए: केवल एकधर्मता ही नहीं।

 

निदर्शना

निदर्शना का स्वरूप दृष्टान्त का सा ही है। निदर्शनं दृष्टान्तकरणं दृष्टान्त रूप किसी वस्तु को प्रस्तुत करना निदर्शना है। साहित्यदर्पणकार के मत से ” यत्र बिम्बानुबिम्बत्वं बोधयेत्सा निदर्शना” बिम्बानुबिम्ब भाव से कोई बात समझाई जाती है, तब निदर्शना होती है। दृष्टान्त का भी लगभग यही लक्षण होता है दृष्टान्त में समानधर्मा पदार्थों का बिम्ब-प्रतिविम्ब भाव रहता है, इसमें यह प्रतिबिम्ब नहीं है। दृष्टान्त में निरपेक्ष वाक्यों में विम्ब प्रतिबिम्ब भाव दिखाया जाता है; परन्तु निदर्शना के वाक्य सापेक्ष होते हैं। इसके प्रमुख तीन भेद ये हैं-

1. जहाँ पर दो संभावित या असंभावित व्यापारों में सम्बन्ध स्थापित किया जाता है, जैसे-

जंग जीत जे चहत हैं, तो सों बैर बढ़ाय ।

जीने की इच्छा करत, कालकूट ते खाय ॥

इसमें अधिकतर जो, सो, जे, ते आदि सम्बन्धसूचक शब्द आते हैं।

2. उपमान के गुणों को उपमेय पर और उपमेय के गुणों को उपमान पर स्थापित करना, जैसे-

जब कर गहत कमान सर, देत अरिन की भीति ।

भाऊ सिंह में पाइये, तब अरजुन की रीति ॥

नयन जो देखा कमल भा, निरमल नीर सरीर ।

हँसत जो देखा हँस भा, दसन जोति नग हीर ॥

3. जहाँ पर पदार्थों के सद् या असद् व्यवहार से सद् या असद् का बोध कराया जाता है, जैसे-

बुंद अघात सहहिं गिरि कैसे खल के वचन संत सह जैसे ।।

व्यतिरेक

उपमेय की उपमान से अधिकता या न्यूनता सूचित करनेवाले अलंकार को व्यतिरेक कहते हैं। साहित्यदर्पणकार ने लिखा है “आधिक्यमुपमेयस्थोप- मानान्यूनताथवाक्यतिरेकः ।” उदाहरण-

जन्म सिन्धु पुनि बन्धु बिष, दिन मलीन सकलंक ।

सिय मुख समता पाव किमि, चन्द बापुरो रंक ||

रस भीजै हम तुम जलज, रहियत रोग समोय ।

पै तुमको नित मित्र सुख, सपनेहुँ हमैं न होय ॥

समासोक्ति

जहाँ पर कार्य, लिंग या विशेषण की समानता के कारण प्रस्तुत के कथन में अप्रस्तुत व्यवहार का समारोप होता है, वहाँ पर समासोक्ति अलंकार होता है, जैसे-

नहिं पराग नहिं मधुर मधु, नहिं विकास यहि काल ।

अली कली ही मैं विंध्यो, आगे कौन हवाल ॥

बड़ो डील लखि पील को, सबन तज्यो बन थान ।

धनि सरजा तू जगत में, ताको हर्यो गुमान ॥

व्याजस्तुति

जहाँ पर स्तुति के वाक्यों द्वारा निन्दा और निन्दा के वाक्यों द्वारा स्तुति प्रकट होती है, वहाँ पर व्याजस्तुति अलंकार होता है। इस अलंकार के चार रूप हैं।

1. निन्दा से स्तुति; जैसे-

कुजनपाल गुनवर्जित अकुल अनाथ |

कहौं कृपानिधि राउर कस गनगाथ

2. स्तुति से निन्दा; जैसे-

राम साधु तुम साधु सुजाना। राम मातु तुम भलि पहिचाना।

3. एक की निन्दा से किसी दूसरे की निन्दा, जैसे-

दई निरदई सों भई, ‘दास’ बड़ी भूल । कमलमुखी के जिन कियो, हिय कठिनाई अतूल ॥

4. एक की स्तुति से किसी दूसरे की स्तुति, जैसे- ।

जाको ऐसो दूत सो साहेब अबै आवनो

 

अप्रस्तुत प्रशंसा

जहाँ पर अप्रस्तुत का वर्णन करते हुए प्रस्तुत का लक्ष्य प्रकट होता है, वहाँ पर अप्रस्तुत प्रशंसा अलंकार होता है। इसके कई रूप है-

(1) सारूप्य निबन्धना – जहाँ अप्रस्तुत कथन से प्रस्तुत लक्षित होता है

काल कराल पर कितनी पै मराल न ताकत तुच्छ तलैया ।

(2) कार्य निबन्धना- जहाँ पर कार्य के कथन द्वारा इष्टकारण का संकेत होता है, जैसे-

राधे को बनाय विधि धोयो हाथ ताको रंग,

जमि भयो चन्द, कर झारे भये तारे हैं ।

(3) कारण निबन्धना- जहाँ पर कारण के कथन से इष्ट कार्य लक्षित होता है, जैसे-

लई सुधा सब छीनि बिधि, तव मुख रचिबे काज ।

सो अब याही सोच सखि, होत छीन दुजराज ॥

(4) सामान्य निबन्धना- सामान्य का कथन कहकर जहाँ पर विशेष को लक्षित कराया जाय, जैसे-

बड़े प्रबल सों बैर करि, करत न सोच विचार । ते सोवत बारूद पर कटि में बाँध अंगार ॥

(5) विशेष निबन्धना- विशेष के कथन द्वारा जहाँ पर सामान्य को लक्षित कराया जाय, जैसे-

धन्य सेस सिर जगत हित, धारत भुव को भारि । बुरो बाघ अपराध बिन, मृग को डारत मारि ॥

 

विभावना

“विभावना बिना हेतु कार्यात्पत्तिर्यदुच्यते” (साहित्यदर्पण)। जहाँ पर किसी रूप में कारण के बिना कार्य की उत्पत्ति का वर्णन किया जाय, वहाँ पर विभावना अलंकार होता है। इसके छः भेद माने गये हैं-

प्रथम- जहाँ कारण के अस्तित्व के बिना ही कार्य होता है, जैसे-

साहि तनै सिवराज की स सहज टेव यह ऐन । अनरीझे दारिद हरै, अनखीझे रिपुसैन ॥

द्वितीय- जहाँ अपूर्ण या अपर्याप्त कारण होने पर भी कार्य पूरा होता है, जैसे-

आक धतूरे के फूल चढ़ाये ते रीझत हैं तिहुँ लोक के साँई।

तृतीय- जहाँ पर बाधक परिस्थिति के होते हुए भी कार्य पूरा होता है, जैसे-

लाज लगाम न मानहीं, नैना मो बस नाहिं ।

ये मुँहजोर तुरंग लौं, ऍचत हू चलि जाहिं ॥

चतुर्थ- जहाँ वास्तविक कारण के स्थान पर अन्य कारण से कार्य उत्पन्न होता जैसे-

विद्रुम के संपुट में उपजे मोती के दाने कैसे ?

यह शुक फलजीवी करता चुगने की मुद्रा ऐसे ।

भयो कंबु ते कंज इक सोहत सहित विकास ।

देखहु चम्पक की लता, देति कमल सुखवास ॥

क्यों न उतपात होहिं बैरिन के झुंडन मैं,

कारे घन उमड़ि अँगारे बरसत हैं ।

पञ्चम- जहाँ पर विरोधी कारण द्वारा कार्य सम्पन्न होता है, जैसे-

लाल तिहारे रूप की, निपट अनोखी बान ।

अधिक सलोनो है तक, लगत मदुर अँखियान ॥

या अनुरागी चित्त की गति समुझे नहिं कोय ।

ज्यों ज्यों भींजे स्याम रंग त्यों त्यों उज्ज्वल होय |

वा मुख की मधुराई कहा कहौं,

मीठी लगै आँखियान लुनाई ॥

षष्ठ- जहाँ पर कार्य से कारण की उत्पत्ति वर्णन की जाती है, जैसे-

और नदी नदन तै कोकनद होत, तेरो कर कोकनद नदी नद प्रगटत हैं।

असंगति

जहाँ पर कारण, कार्य, स्थान, काल आदि की नियमविरुद्ध स्थिति दिखाई जाती है, वहाँ असंगति अलंकार होता है। इसके कई रूप हैं।

प्रथम- जहाँ कहीं कारण और कहीं कार्य होना दिखाया जाय, 1 जैसे-

दृग उरझत टूटत कुटुम, जुरत चतुर चित प्रीति । परति गाँठि दुरजन हिये, दई नई यह रीति ॥

द्वितीय- किसी वस्तु को अपने उचित स्थान से अन्यत्र वर्णन करना,

पलनि पीक अंजन अधर, धरे महावर भाल । आजु मिले सु भली करी, भले बने हो लाल ॥

तृतीय- जो इच्छित कार्य है, उसके विपरीत कार्य करते हुए वर्णन करना, जैसे- जैसे-

राज देन कहँ सुभ दिन साधा। कह्यो जान बन केहि अपराधा ॥

 

विरोधाभास

जहाँ पर किसी पदार्थ, गुण या क्रिया में विरोध दिखलाई पड़े (वास्तव में विरोध न हो), वहाँ विरोधाभास अलंकार होता है, जैसे-

कत बेकाज चलाइयत, चतुराई की चाल ।

कहे देत यह रावरे सब गुन, बिन गुन माल ॥

अवध को अपनाकर त्याग से ।

वन तपोवन सा प्रभु ने किया ॥

भरत ने उनके अनुराग से ।

भवन में वन का व्रत ले लिया ॥

Leave a Comment

Ads Blocker Image Powered by Code Help Pro

Ads Blocker Detected!!!

We have detected that you are using extensions to block ads. Please support us by disabling these ads blocker.

error: