(शब्द शक्ति) shabd shakti kise kahate hain ?:- शब्द का अर्थ उद्घाटित करने वाली शक्ति ‘शब्द-शक्ति’ कहलाती है।
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अर्थ(shabd shakti kise kahate hain)
shabd shakti kise kahate hain:- शब्द में अन्तर्निहित अर्थ को प्रकट करने वाले व्यापार को शब्द शक्ति कहते हैं। प्रत्येक शब्द में वक्ता के वास्तविक अर्थ को व्यक्त करने का जो तरीका होता है, वह शब्द शक्ति के कारण ही होता है। शक्ति के अनुसार शब्द तीन प्रकार के होते हैं:-
- (i) वाचक
- (ii) लक्षक और
- (iii) व्यंजक।
वाचक शब्द द्वारा व्यंजित अर्थ वाच्यार्थ, अभिधेयार्थ, मुख्यार्थ या संकेतितार्थ कहलाता है। लक्षक के द्वारा आरोपित अर्थ लक्ष्यार्थ कहलाता है तथा व्यंजक शब्द के द्वारा प्रकट अन्य अर्थ या व्यंजित भाव व्यंग्यार्थ कहलाता है। शब्द एवं अर्थ के सम्बन्ध के अनुसार शब्द शक्ति तीन प्रकार की होती है:-
- अभिधा
- लक्षणा
- व्यंजना

अभिधा शब्द शक्ति

जहाँ स्मृति, बुद्धि, अनुभूति और शब्दकोषादि के आधार पर कहे हुए शब्द के सुनते ही सबसे प्रथम जिस अर्थ का बोध होता है; उसे वाच्यार्थ कहते हैं। वाच्यार्थ को कहने वाला शब्द वाचक कहलाता है और जिस शक्ति द्वारा यह अर्थ मालूम होता है उसे ‘अभिधा’ कहते हैं। इस शक्ति के द्वारा अनेकार्थी शब्दों के एक अर्थ का बोध होता है।(shabd shakti kise kahate hain)
जैसे-
- मोहन एक नटखट लड़का है।
- उसके हार के मोती कीमती है।
- हरी पुस्तक पढ़ रहा है।
- गाय दूध देती है।
लक्षणा शब्द शक्ति

जब अभिधा द्वारा प्राप्त अर्थ को ग्रहण करने में किसी प्रकार की बाधा आ पड़ती है और मुख्यार्थ से संबंधित कोई अन्य अर्थ ग्रहण किया जाता है। तो उसे लक्ष्यार्थ कहते हैं। लक्ष्यार्थ के वाचक शब्द को लक्षक कहते हैं और लक्ष्यार्थ निर्धारिणी शक्ति को लक्षणा कहते हैं। मुख्यार्थ को ग्रहण न करने का कारण, कोई कवि या लोकपरंपरा होती है अथवा कोई प्रयोजन होता है।(shabd shakti kise kahate hain)
- 1. राम सदा चौकन्ना रहता है।
- 2. राजस्थान जाग उठा।
- 3. मोहन ने कहा, मेरा नौकर तो गधा है।
- 4. लाल लाजपतराय पंजाब के शेर थे।
- 5. यह तो निरी गाय है।
लक्षणा के दो भेद हैं- रूढ़ा लक्षणा और प्रयोगजनवती लक्षणा।
रूढ़ा लक्षणा (निरूढ़ा)
जहाँ मुख्यार्थ को ग्रहण करने में कवि या लोक परंपरा के कारण रुकावट पड़े, वहाँ रुढ़ि लक्षणा होती है, यथा-
“फली सकल मन कामना, लूट्यौ अगनित चैन।”
‘मनकामना’ कोई वृक्ष नहीं है कि फली और चैन कोई धन नहीं है कि लूटा जा सके। पर ऐसा कहने की एक रूढ़ि सी चली आ रही है। अतएव यहाँ ‘फली’ का अर्थ ‘पूर्ण हुई’ और ‘लूट्यौ’ का अर्थ ‘प्राप्त किया’ आदि करना होगा। इसलिये यहाँ रूढ़ि लक्षणा होगी।
इसके दो भेद हैं- गौणी और शुद्धा ।
गौणी रूढ़ा लक्षणा
जब किसी विशेष गुण के लिये रूढ़ि लक्षणा होती है, तब वहाँ गौणी रूढ़ि होती है। यथा-
‘अचेतन थे सब नरनार । ‘
‘अचेतन’ का मुख्यार्थ है ‘निर्जीव या मृत’ किंतु यह ‘बेहोश’ के अर्थ में रूढ़ि हो गया है। ‘अचेतन’ एक गुण भी है अतः यहाँ गौणी रूढ़ि होगी।
शुद्धा रूढ़ा लक्षणा
जब किसी गुण विशेषातिरिक्त अन्य किसी संबंध से लक्ष्यार्थ का बोध हो, वहाँ शुद्धा रूढ़ा लक्षणा होगी, यथा-
” पञ्चनद है अभिजन मेरा।’
पञ्चनद = पाँच नदियाँ), (अभिजन = जन्मभूमि) । ‘पंचनद’ का मुख्यार्थ है ‘पाँच बड़ी नदियाँ’, परंतु यह शब्द ‘पंजाब प्रांत’ के अर्थ में रूढ़ हो गया है। इसी प्रकार पंकज, विहंग और मृग शब्द के मुख्यार्थ है ‘कीचड़ में पैदा होने वाला’, ‘आकाश में गमन करने वाला’ और ‘वनेचर पशु’, परंतु ये क्रमशः ‘कमल’, ‘पक्षी’ और ‘हिरण’ के अर्थ में रूढ़ हो गए हैं। यहाँ ‘पंकज’ आदि शब्दों का लक्ष्यार्थ किसी गुण के कारण नहीं है, अतः यहाँ शुद्धा रूढ़ा होगी।
प्रयोजनवती लक्षणा
जहाँ किसी प्रयोजन के कारण शब्द के मुख्यार्थ में बाधा पड़े, वहाँ प्रयोजनवती लक्षणा होती है, यथा-
“मैंने राम रतन धन पायो। “
यहाँ ‘रामचन्द्रजी’ को ‘रत्न-धन’ कहा गया है। ‘रत्न धन’ का मुख्यार्थ है ‘धन-संपत्ति’, किंतु यहाँ ईश्वर भक्ति सूचित करने के प्रयोजन से ‘रतन धन’ का अर्थ ‘सर्व शक्तिमान्’ या ‘अत्यंत सुखदाई’ आदि करना होगा।
इसके दो भेद हैं- गौणी और शुद्धा
गौणी प्रयोजनवती लक्षणा
जहाँ सादृश्य (समान गुण या धर्म) लक्ष्यार्थ के बोध कराने में कारण हो, वहाँ गौणी प्रयोजनवती लक्षणा होगी, यथा-
” पुनपुन बंदहुँ गुरु के पद-जलजात।’ “
यहाँ पर ‘पद जलजात’ में गौणी प्रयोजनवती लक्षणा होगी। पद (पाँव) जलजात (कमल) नहीं हो सकते। इसलिये यहाँ इसका अर्थ ‘कमल के समान कोमल पाँव’ आदि करना होगा। इसी प्रकार ‘राशि मुख’, ‘कर पंकज’ और ‘खंजन-नेत्र’ या ‘मृगनयनी’ आदि में भी ‘गौणी प्रयोजनवती लक्षणा’ होगी।
इसके भी दो भेद हैं- सारोपा और साध्यवसाना
1. गौणी सारोपाः
जहाँ किसी वस्तु पर सादृश्य गुण के कारण, किसी अन्य वस्तु का आरोप किया जाए, वहाँ गौणी सारोपा होती है, यथा-
“प्रान पखेरू वीर के, उड़त एक ही बार ।“
यहाँ पर सादृश्य गुण (उड़ना) के कारण ‘प्राण’ पर ‘पक्षी’ का आरोप किया गया है। इसलिये यहाँ गौणी सारोपा है। प्राण वस्तुतः पक्षी नहीं है, इससे मुख्यार्थ की रुकावट भी है, परंतु प्रयोजन से लक्ष्यार्थ होगा ‘पक्षी के समान उड़कर एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने वाला।’
2. गौणी साध्यवसानाः
जहाँ केवल लक्षक शब्दों द्वारा ही किसी वस्तु का कथन कर दिया जाए (गुण सादृश्य के कारण) । इसमें केवल आरोप्यमाण ही रहता है, आरोप-विषय नहीं, यथा-
“स्वेत-पीत संग श्याम धार, अनुगत सम अंतर।
सोहत त्रिगुन, त्रिदेव, त्रिजग, प्रतिभास निरन्तर ।।
‘यहाँ ‘स्वेत-पीत और श्याम धार’ का आरोप वर्ण सादृश्य के कारण क्रमश: गंगा, सरस्वती और यमुना जी पर है। परंतु इन तीनों का यहाँ वर्णन नहीं किया गया है। अतः यहाँ गौणी साध्यवसाना होगी।
शुद्धा प्रयोजनवती लक्षणा
जहाँ सादृश्य-संबंध के अतिरिक्त अन्य किसी संबंध से लक्ष्यार्थ का बोध हो, वहाँ शुद्धा प्रयोजनवती लक्षणा होती है, यथा-
” कर तू धर्मामृत का पान। “
यहाँ ‘धर्मामृत’ में धर्म और अमृत में सादृश्य संबंध नहीं है, परंतु तात्कर्म्य संबंध है। यहाँ मुख्यार्थ की रुकावट हुई है, क्योंकि धर्म वस्तुतः अमृत नहीं है, परंतु कार्यों की समानता है। अतः यहाँ शुद्धा प्रयोजनवती लक्षणा होगी।
इसके चार भेद हैं- अजहत्स्वार्था या उपादान लक्षणा, जहत्स्वार्था या लक्षणलक्षणा, शुद्धा सारोपा और शुद्धा साध्यवसाना।
1. अजहत्स्वार्थाः
जहाँ प्रयोजनीय अर्थ की प्राप्ति के लिये मुख्यार्थ को न छोड़ते हुए, किसी दूसरे अर्थ के ग्रहण करने में अजहत्स्वार्था होती है। यथा-
” धवल धाम चहुँ ओर फरहरत धुजा पताका।
धहरत घण्टा धुनि, धमकत घौसा करि साको।। “
(धुजा = ध्वजा; धहरत = गूंजना; धुनि = ध्वनि, धौंसा = नगाड़ा; साका = शब्द)
‘ध्वजा’ स्वयं नहीं लहराती, घंटे की ध्वनि अपने आप नहीं गूँजती तथा नगाड़े का शब्द अपने आप नहीं होता; क्योंकि ये सब जड़ पदार्थ हैं। अतएव यहाँ ध्वजा, घंटे और नगाड़े का लक्ष्यार्थ होगा। ध्वजा पकड़े हुए कोई व्यक्ति, घंटा बजाने वाला कोई व्यक्ति तथा नगाड़ा बजाने वाला कोई व्यक्ति। इन सब में क्रमश: ध्वजा, घंटा और नगाड़ा उपादान भी है और इन शब्दों ने अपना मुख्यार्थ भी नहीं छोड़ा है। क्योंकि उसी से संबंधित व्यक्ति का आक्षेप किया गया है। यहाँ सादृश्य से अतिरिक्त संबंध है, इससे शुद्धा है और प्रयोजन है गंगा की महत्ता प्रकट करना।
2. जहत्स्वार्था:
जहाँ मुख्यार्थ को छोड़कर अन्य अर्थ ग्रहण कर लिया जाता है, वहाँ जहत्स्वार्था होती है। अजहत्स्वार्था में शब्द अपना मुख्यार्थ नहीं छोड़ता, उसी से संबंधित कोई अन्य अर्थ लगा लिया जाता है; परंतु जहत्स्वार्था में शब्द अपने मुख्यार्थ को बिल्कुल छोड़ देता है। यथा-
‘भानुताप उपजावे जिसको। वह ज्वाला न जड़ावे किसको ।।
व्याकुल जीव-समूह निहारे। हाथ! हुताशन से सब हारे ।। “
‘हुताशन’ का मुख्यार्थ है ‘यज्ञ की अग्नि’, किंतु यहाँ इसका लक्ष्यार्थ होगा ‘प्रचंड धूप’। ‘हुताशन’ शब्द ने अपने अर्थ को एकदम छोड़ दिया है, इससे यहाँ जहत्स्वार्था होगी।
3. शुद्धा सारोपा प्रयोजनवती लक्षणाः
जहाँ किसी वस्तु का किसी के सादृश्य संबंध न होने पर भी एक वस्तु का दूसरी पर आरोप किया जाए, यथा-
“निर्धन के धन राम । निर्बल के बल राम ।। “
यहाँ श्री रामचन्द्रजी पर क्रमशः ‘धन और बल’ का आरोप किया गया है। धन और बल का मुख्यार्थ तो होता है ‘संपत्ति और शक्ति’. परन्तु रामचन्द्रजी ‘संपत्ति और शक्ति’ नहीं हैं, अतएव इसका लक्ष्यार्थ होगा ‘सुखद और रक्षक’। अतः यहाँ शुद्धा सारोपा प्रयोजनवती लक्षणा होगी।
4. शुद्धा साध्यवसानाः
जहाँ आरोप्यमाण (जिन शब्दों से आरोप किया जाए) ही रहता है, आरोप विषय (जिस पर आरोप किया गया हो) नहीं रहता, वहाँ शुद्धा साध्यवसाना होती है। परंतु यह ध्यान रखना चाहिये कि दोनों में सादृश्य संबंध न हो, यथा-
‘बौरिनि कहा बिछावति, फिरि फिरि सेज कृसान ।
सुन्यो न मेरे प्रानधन, चहत आज कहुँ जान ।। यहाँ ‘बैरिनि’ शब्द ‘सखी’ के लिये और ‘कृसान’ (कृशानु) शब्द ‘फूलों’ के लिये आया है। केवल आरोप्यमाणा रहने से साध्यवसाना और सादृश्य संबंध के न होने के कारण शुद्धा साध्यवसाना प्रयोजनवती है।
व्यंजना शब्द शक्ति

वाच्यार्थ और लक्ष्यार्थ दोनों के अतिरिक्त जिस अदभुत अर्थ का बोध होता है, उसे व्यंग्यार्थ कहते हैं। जिस शब्द से यह अर्थ प्राप्त होता है उसे व्यंजक कहते हैं और जिस शक्ति के द्वारा व्यंग्यार्थ का ज्ञान होता है, उसे व्यंजना कहते हैं। इसके दो भेद हैं- शाब्दी और आर्थी। (shabd shakti kise kahate hain)
शाब्दी व्यंजना
जहाँ व्यंजना शब्द पर निर्भर होती है, वहाँ शाब्दी व्यंजना होती है. यथा-
“चिर जीवो जोरी जुरै, क्यों न सनेह गंभीर।
को घटि, ये वृषभानुजा, वै हलधर के वीर।।”
(वृषभानुजा = राधा और गाय) (हलधर = बलराम और बैल)
यहाँ ‘हलधर’ और ‘वृषभानुजा’ में श्लेष होने के कारण एक गुप्त परिहास व्यंग्य है, परंतु वह इन व्यंजक शब्दों पर ही निर्भर है, यदि इनकी जगह इन्हीं के पर्यायवाची शब्द रख दिये जाएँ तो फिर यह चमत्कार न रह जाएगा। यहाँ व्यंजना शब्द पर निर्भर है, अतः यहाँ शाब्दी व्यंजना होगी। इसके दो भेद हैं- अभिधामूला और लक्षणामूला ।
अभिधामूला
जहाँ अनेकार्थी शब्दों का अभिधा द्वारा एक अर्थ निश्चय हो जाने पर भी अन्य कोई अद्भुतार्थ निकले, वहाँ अभिधामूला शाब्दी व्यंजना होती है, यथा-
“आरंजित हो उषा सुंदरि ने सुखमाना ।
लोहित आभावलित वितान अधर में ताना।।”
यहाँ अभिधा से उषा काल का वर्णन निश्चित हो गया है, किंतु आरंजित (पुलकित, लोहित), उषा सुंदरि (उषा नामक स्त्री; उषा या प्रभात रूपी स्त्री), अधर (ओष्ठ; आकाश) और वितान (साड़ी; चंदोवा) शब्दों के भिन्नार्थ होने से एक अर्थ नायिका संबंधी भी निकल रहा अतः यहाँ अभिधामूला शाब्दी व्यंजना होगी।
लक्षणामूला
जहाँ लक्ष्यार्थ द्वारा एक अर्थ निश्चित हो जाने पर भी कोई दूसरा विलक्षण अर्थ निकलता हो, वहाँ लक्षणामूला व्यंजना होती है, यथा-
“लालोणीश श्रीजनक को लख, तत्काल झगड़ा मिट गया।’ “
(लालोणीश श्रीजनक लाल पगड़ी पहने हुए श्रीजनक नामक = सिपाही और लाल पगड़ी पहने हुए श्रीमान् पिताजी ।)
यहाँ लक्षणा से ‘सिपाही को देखकर दो लड़ते हुए व्यक्तियों को झगड़ा शांत होने का अर्थ निश्चित हो जाने पर भी एक दूसरा विचित्र अर्थ निकल रहा है कि ‘बाहर से आते हुए पिताजी को देख दो झगड़ते हुए सहोदर भाइयों में समझौता हो गया।’ अतः यहाँ लक्षणामूला शाब्दी व्यंजना होगी।
आर्थी व्यंजना
जहाँ व्यंजना अर्थ पर निर्भर होती है, वहाँ आर्थी व्यंजना होती है, यथा-
“अबला जीवन हाय! तुम्हारी यही कहानी ।
आँचल में है दूध और आँखों में पानी ।। ” इसमें माता के स्नेह और दैन्य का चित्रण व्यंग्य है, जो कि शब्दगत नहीं अपितु उसके अर्थ पर निर्भर है। यदि उपर्युक्त शब्दों के स्थान पर ■ उनके प्रतिशब्द भी रख दिये जाएँ तो भी चमत्कार नष्ट नहीं होता। अतः यहाँ आर्थी-व्यंजना होगी।
इसके नौ प्रकार कह गए हैं- वक्तृ वैशिष्ट्य, बोधव्य वैशिष्ट्य, काकु वैशिष्ट्य, वाक्य वैशिष्ट्य, वाच्य वैशिष्ट्य, अन्यसान्निध्य वैशिष्ट्य, प्रस्ताव वैशिष्ट्य, देश वैशिष्ट्य और काल वैशिष्ट्य ।
तात्पर्य वृत्ति (शक्ति)
कुछ आचार्यों ने तात्पर्य नाम की शब्द-शक्ति भी मानी है। इनके मतानुसार आकांक्षा, योग्यता और सन्निधि पूर्ण शब्दों से वाक्य का अर्थ जाना जाता है, अकेला शब्द पूरा अर्थ देने में असमर्थ होता है। उसे ही ये तात्पर्य वृत्ति कहते हैं।(shabd shakti kise kahate hain)

आकांक्षा-
जहाँ शब्दों के अर्थ की प्राप्ति के लिये दूसरे शब्दों की चाह रहती है, उसे आकांक्षा कहते हैं, जैसे- ‘बंदर’ या ‘पानी’ कह देने से किसी अर्थ का बोध नहीं होता है, यदि इन शब्दों में आकांक्षित शब्द ‘बोलता है’ और ‘बरसता है’ जोड़ दिये जाएँ तो वाक्यार्थ की पूर्ति हो जाती है।
सन्निधि-
जहाँ शब्दों से अर्थ की प्राप्ति के लिये उससे संबंधित किन्हीं अन्य शब्दों के जोड़ने की आवश्यकता होती है; उसे सन्निधि कहते हैं, जैसे- ‘जूते’ और ‘पत्थर’ शब्द कह देने से किसी अर्थ का बोध नहीं होता है। यदि इन शब्दों में इनके समीपवर्ती शब्द ‘दरवाजे के पास रखे हुए’ और ‘सड़क पर पड़ा हुआ’ जोड़ दिया जाए तो वाक्यार्थ की पूर्ति हो जाती है।
योग्यता –
वाक्य के विभिन्न शब्द कालिक या दैशिक दृष्टि से पर्याप्त निकट होने चाहिये। यदि एक वाक्य के चार शब्द एक-दो दिनों के अंतराल पर बोले जाएँ (कालिक अंतराल ) या अलग-अलग पृष्ठों पर लिखे जाएँ (दैशिक अंतराल) तो अर्थबोधन की क्षमता पैदा नहीं होती। ‘वह है खेल रही और मोहिनी नहाता है। ऐसा कहने से कोई अर्थ न होगा, परंतु उसे इस प्रकार रख दिया जाए कि, उससे ठीक ठीक अर्थ की प्राप्ति हो जाए तो वहाँ योग्यता की जरूरत होगी, जैसे कि ‘वह नहाता है और मोहिनी खेल रही है।’
संदर्भ:
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