हिंदी साहित्य का इतिहास : काल विभाजन, नामकरण, प्रवृत्तियाँ | Hindi Sahitya Ka Itihas: साहित्य एक नदी की तरह है। जो निरंतर विकसित होता रहता है। उसमें कोई बाधा नहीं आती। और न ही कोई उसे नुकसान पहुंचाता है। हाँ, वह समय के साथ-साथ बदलता रहता है, और इसके साथ-साथ साहित्य भी बदल जाता है, जिससे वह नई दिशाएँ और प्रवृत्तियाँ प्राप्त करता है।
विभिन्न साहित्यिक प्रवृत्तियों और प्रवाहों के आधार पर साहित्यिक इतिहास को समूहों में विभाजित करना सबसे अच्छा तरीका है। विषय और शैली साहित्य में हर युग बदलती रहती हैं। हिन्दी साहित्य के बारे में भी ऐसा लगता है। साहित्यिक कृतियाँ एक विशेष समय में समाज की विशिष्ट परिस्थितियों और संबंधित विचारों से प्रेरित हुई हैं। गौण प्रवृत्ति के रूप में अवश्य अपवाद रहेंगे।
विभाजन के आधार पर आचार्य शुक्लजी ने स्वयं अपनी राय व्यक्त की है। उन्होंने कहा है- “जबकि प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिम्ब होता है तब यह निश्चित है कि जनता की चित्तवृत्ति के परिवर्तन के साथ-साथ साहित्य के स्वरूप में भी परिवर्तन होता चला जाता है। आदि से अन्त तक इन्हीं चित्तवृत्तियों की परम्परा को परखते हुए साहित्य परम्परा के साथ उनका सामंजस्य दिखाना ही साहित्य का इतिहास कहलाता है।”
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sahitya akademi award 2022 | साहित्य अकादमी पुरस्कार 2022 | All Languages

Hindi Sahitya/हिंदी साहित्य का इतिहास : काल विभाजन, नामकरण
‘भक्तमाल’, ‘चौरासी वैष्णवन की वार्ता’ और ‘दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता’ जैसे लेख हिंदी साहित्य के इतिहास से जुड़े प्रारंभिक प्रयास थे। इनमें कालविभाजन और नामकरण पर कोई विचार नहीं था। फ्रेंच विद्वान गार्सा द तासी को हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखने का श्रेय दिया जाता है। फ्रेंच में लिखी गई पुस्तक “इतवार द ला लितरेत्युर एन्दुई एन्दुस्तानी” में उन्होंने हिन्दी और उर्दू के कई कवियों का परिचय दिया है, जिनके नाम अंग्रेजी वर्णक्रमानुसार हैं।
लेकिन उन्होंने काल विभाजन और नामकरण पर भी विचार नहीं किया था। हिन्दी विद्वान शिवसिंह सेंगर का शिवसिंह सरोज इस परम्परा का दूसरा महत्वपूर्ण लेख है। इसमें लगभग एक हजार कवियों की कविताओं और जीवन चरित्रों के उदाहरण हैं, लेकिन इसमें काल विभाजन का कोई संकेत नहीं है।
यह संबंध शुरू करने का श्रेय जार्ज ग्रियर्सन को ही जाता है। लेकिन, जैसा कि उन्होंने अपने लेख की भूमिका में बताया है, वे कालक्रम और काल विभाजन के निर्वाह में पूरी तरह से सफल नहीं हो सके। उन्होंने लिखा है – “सामग्री को यथा संभव काल क्रमानुसार प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। यह सर्वत्र सरल नहीं रहा है और कतिपय स्थलों पर तो यह असंभव सिद्ध हुआ है।” इन्होंने हिन्दी साहित्य के इतिहास को 11 शीर्षकों के अंतर्गत बांटा है।–
- चारण काल
- पन्द्रहवीं शती का धार्मिक पुनर्जागरण
- जायसी की प्रेम कविता
- ब्रज का कृष्ण-सम्प्रदाय,
- मुगल दरबार
- तुलसीदास
- रीति काव्य
- तुलसीदास के अन्य परवर्ती
- अट्ठारहवीं शताब्दी
- कम्पनी के शासन में हिन्दुस्तान और
- महारानी व्हिक्टोरिया के शासन में हिन्दुस्तान।
डॉ. ग्रियर्सन के इस विभाजन में अनेक असंगतियाँ, न्यूनता एवं त्रुटियाँ होते हुए भी प्रथम प्रयास होने के कारण, इसका अपना महत्व है।
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आगे चलकर मिश्र बन्धुओं ने अपने ‘मिश्र बन्धु विनोद’ (1913) में काल विभाजन का प्रयास किया, जो प्रत्येक दृष्टि से ग्रियर्सन के प्रयास से बहुत अधिक प्रौढ़ एवं विकसित कहा जा सकता है। इनका विभाजन इस प्रकार है-
- आरम्भिक काल
- माध्यमिक काल
- अलंकृत काल
- परिवर्तन काल
- वर्तमान काल
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सन् 1929 में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ लिखकर काल विभाजन का नया प्रयास किया, जो मिश्र बन्धुओं के बाद प्रकाशित हुआ था। इनके कालक्रम में अधिक सुबोधता, सरलता और स्पष्टता है। आज भी वह अपनी इसी विशेषता के कारण सर्वव्यापी और लोकप्रिय है। उनका कालक्रम निम्नलिखित है:
- आदिकाल (वीरगाथा काल)- संवत् 1050 से 1375
- पूर्व मध्यकाल (भक्तिकाल)- संवत् 1375 से 1700
- उत्तर मध्यकाल (रीतिकल)- संवत् 1700 ते 1900
- आधुनिक काल (गद्यकाल) संवत् 1900 से अब तक
शुक्ल जी के पश्चात् डॉ. रामकुमार वर्मा का नाम इस प्रसंग में उल्लेखनीय हैं, जिन्होंने अपना नया – काल विभाजन प्रस्तुत किया जो इसप्रकार है-
- सन्धिकाल (750-1000 वि.)
- चारण काल (1000-1375 वि.)
- भक्तिकाल (1375-1700 वि.)
- रीतिकाल (1700-1900 वि.)
- आधुनिक काल (1900 से अब तक)
डॉ. वर्मा के विभाजन के अंतिम तीन काल-विभाजन आचार्य शुक्ल जी के ही विभाजन के अनुरूप है, केवल ‘वीरगाथाकाल’ के स्थान पर ‘चारणकाल’ एवं ‘सन्धिकाल’ नाम देकर नयापन स्थापित किया।
इस परम्परा में बाबू श्यामसुन्दर दास ने काल विभाजन भी बनाया था। उन्हें शुक्ल जी से कोई अधिक अंतर नहीं है। उनका काल-विभाजन निम्नलिखित है:-
- आदिकाल (वीरगाथा का युग- संवत् 1000 से संवत् 1400 तक)
- पूर्व मध्ययुग (भक्ति का युग- संवत् 1400 से संवत् 1700 तक)
- उत्तर मध्ययुग (रीति ग्रन्थों का युग- संवत् 1700 से, संवत् 1900 तक)
- आधुनिक युग (नवीन विकास का युग- संवत् 1900 से अब तक)
शुक्लजी के बाद कुछ विद्वानों ने पूर्ववर्ती कालक्रम को बदलकर अपना कालक्रम प्रस्तुत करने का प्रयास किया है, लेकिन शुक्लजी का इतिहास लेखन का आधार अधिक वैज्ञानिक, तर्कसंगत और उपयुक्त लगता है। डॉ. गणपतिचन्द्र गुप्त ने हिन्दी साहित्य का वैज्ञानिक इतिहास में उसका समर्थन किया है। उनका कालक्रम इस प्रकार है:
- प्रारम्भिक काल (1184-1350 ई.)
- पूर्व मध्यकाल (1350-1600 ई.)
- उत्तर मध्यकाल (1600-1857 ई.)
- आधुनिक काल (1857 ई. अब तक)
इस परम्परा में डॉ. नगेन्द्र का नाम भी उल्लेखनीय है। उन्होंने हिन्दी साहित्य का काल-विभाजन तथा नामकरण इस प्रकार किया है-
- आदिकाल- 7वीं शती के मध्य से 14वीं शती के मध्य तक।
- भक्तिकाल- 14 वीं शती के मध्य से 17 वीं शती के मध्य तक।
- रीतिकाल- 17 वीं शती के मध्य से 19 वीं शती के मध्य तक।
- आधुनिक काल- 19 वीं शती केमध्य से अब तक।
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उपर्युक्त सभी विद्वानों के काल विभाजन में शुक्ल जी के काल विभाजन को ही सर्वसम्मत एवं उपर्युक्त माना गया है।
हिन्दी साहित्य का नामकरण
हिन्दी साहित्य के विद्वानों में सिर्फ हिन्दी साहित्य के आरम्भ को लेकर मतभेद है। उसमें भी दो समूह हैं: एक समूह हिन्दी साहित्य की शुरूआत 7वीं शताब्दी से मानता है, जबकि दूसरा 10वीं शताब्दी से मानता है। यदि वास्तव में 7वीं से 10वीं शताब्दी की अवधि को हिन्दी साहित्य की पृष्ठभूमि के रूप में मान लिया जाए, तो यह विवाद भी दूर हो जाएगा। क्योंकि इस युग की रचनाएँ अपभ्रंश में हैं, और अपभ्रंश से ही हिन्दी भाषा का जन्म हुआ है। हिन्दी भाषा और साहित्य के मूल ज्ञान को जानने के लिए इस कालखण्ड की भाषा और साहित्यिक धारा को समझना बहुत महत्वपूर्ण है।
विद्वानों में हिन्दी साहित्य के विभिन्न कालखण्डों का नामकरण करने पर मतभेद है। मुख्यतः 10वीं से 14वीं शताब्दी तक के आरम्भिक (आदिकाल) और 17वीं से 19वीं शताब्दी तक के (रीतिकाल) कालखण्ड के नामकरण पर अधिक मतभेद है।
आदिकाल का नामकरण एवं मतभेद:–
- चारणकाल- ग्रियर्सन
- प्रारम्भिक काल – मिश्रबन्धु
- वीरगाथाकाल – आ. रामचन्द्र शुक्ल
- सिद्धसामंत काल- राहुल सांकृत्यायन द्विवेदी
- बीजवपन काल- महावीरप्रसाद द्विवेदी
- वीरकाल- विश्वनाथप्रसाद मिश्र
- आदिकाल- हजारीप्रसाद द्विवेदी
- संधिकाल एवं चारणकाल – डॉ. रामकुमार वर्मा
चारण काल:-
ग्रियर्सन ने हिन्दी साहित्येतिहास की शुरुआत को पहली बार “चारणकाल” कहा, लेकिन उन्होंने इस नामकरण के लिए कोई तथ्य नहीं दिया। उन्हें लगता है कि चारणकाल 643 ईसवी से शुरू हुआ था, लेकिन 1000 ई. तक चारण कवियों द्वारा लिखित कोई रचना नहीं मिली है। इसलिए यह नामकरण सही नहीं है।
प्रारम्भिक काल:-
मिश्रबन्धुओं ने 643 ई. से 1387 ई. तक की अवधि को प्रारम्भिक काल कहा है। यह नाम साहित्यिक प्रवृत्ति नहीं बताता। यह एक आम संज्ञा है जो हिंदी भाषा की शुरुआत बताती है। इसलिए नाम भी गलत नहीं है।
वीरगाथाकाल:-
रामचन्द्र शुक्ल ने 1050 से 1375 ई. तक के हिन्दी साहित्यिक इतिहास को ‘वीरगाथा काल’ कहा है। अपने मत के समर्थन में उन्होंने कहा है- “आदिकाल की दीर्घ परम्परा के बीच प्रथम डेढ़-दो सौ वर्षो के भीतर तो रचना की किसी विशेष प्रवृत्ति का निश्चय नहीं हो पाता है- धर्म, नीति, श्रृंगार, वीर सब प्रकार की रचनाएँ दोहों में मिलती है। इस अनिर्दिष्ट लोक प्रवृत्ति के उपरान्त जब से मुसलमानों की चढ़ाइयाँ आरंभ होती है तब से हम हिन्दी साहित्य की प्रवृत्ति विशेष रूप में बँधती हुई पाते हैं।
राजाश्रित कवि और चारण जिस प्रकार रीति, श्रृंगार आदि के फुटकल दोहे राजसभाओं में सुनाया करते थे, उसी प्रकार अपने आश्रयदाता राजाओं के पराक्रम पूर्ण चरितों या गाथाओं का भी वर्णन किया करते थे। यह प्रबन्ध परम्परा ‘रासो’ के नाम से पाई जाती है, जिसे लक्ष्य करके इस काल को हमने ‘वीरगाथा काल’ कहा है।
शुक्लजी ने इस युग का नामकरण करने के लिए जिन बारह ग्रन्थों को आधार बनाया वे ग्रन्थ हैं-
- विजयपाल रासो
- पृथ्वीराज रासो
- हम्मीर रासो
- कीर्तिलता
- बीसलदेव रासो
- जयचन्द प्रकाश
- जयमयंक जसचन्द्रिका
- कीर्तिपताका
- खुमान रासो
- परमाल रासो
- खुसरो की पहेलियाँ
- विद्यापति की पदावली
जिन बारह रचनाओं को शुक्ल ने नामकरण का आधार माना था, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने उन रचनाओं को अप्रामाणिक बताते हुए उनका नामकरण ‘वीरगाथाकाल’ निरर्थक ठहराया है। जैसे खुमान रासो और बीसलदेव रासो, नवीनतम खोजों के आधार पर ये 16वीं शताब्दी में लिखा गया है। हम्मीर रासो, जयचन्द्रप्रकाश और जयमयंक जसचन्द्रिका नोटिस मात्र हैं। इसी तरह, प्रसिद्ध महाकाव्य पृथ्वीराज रासो भी अर्द्ध प्रामाणिक है। खुसरो की पहेलियाँ और विद्यापति की पदावली भी वीरगाथात्मक नहीं हैं, और आज भी परमाल रासो या आल्हाखंड के मूल का पता नहीं लगता। इस काल में धार्मिक, श्रृंगारिक और लौकिक साहित्य भी लिखा गया है।
सिद्ध-सामंत काल:-
इस अवधि को राहुल सांकृत्यायन ने “सिद्ध सामन्त काल” कहा है। इनका विचार था कि इस कालखण्ड में सिद्धों और सामन्तों का जीवन और राजनीति पर एकाधिकार था। इस युग के कवियों ने सामन्तों का यशोगान किया है। अन्तर्बाह्य प्रवृत्तियों को देखते हुए, इस युग में सिद्धों और सामन्तों का ही वर्चस्व था। इस नामकरण से सामंती माहौल का पता चलता है, लेकिन कोई साहित्यिक प्रवृत्ति नहीं दिखाई देती। इस नामकरण से खुसरो, नाथ पंथी और योगी कवियों की काव्य प्रवृत्तियों को शामिल नहीं किया जा सकता।
बीजवपन काल:-
इस अवधि को महावीर प्रसाद द्विवेदी ने बीजवपन काल कहा है। यह नाम भी सही नहीं है। भाषा की दृष्टि से यह बीजवपन का समय था, लेकिन साहित्यिक प्रवृत्ति ऐसी नहीं थी। इस नाम से लगता है कि साहित्यिक प्रवृत्तियाँ उस समय शैशव में थीं, लेकिन ऐसा नहीं है। उस युग में साहित्य भी विकसित हो गया था। इसलिए यह नाम सही नहीं है।
वीरकाल :-
इस काल को विश्वनाथ प्रसाद मित्र ने “वीरकाल” कहा है। यह नाम आचार्य रामचन्द्र शुक्ल द्वारा दिए गए नाम ‘वीर गाथा काल’ का सिर्फ अनुवाद है और कुछ भी नया नहीं है। इसलिए यह नाम भी सही नहीं है।
सन्धि एवं चारणकाल :-
डॉ. रामकुमार वर्मा ने आदिकाल को ‘सन्धिकाल’ और ‘चारणकाल’ में विभाजित किया है। सन्धिकाल भाषा को बताता है और चारणकाल एक वर्ग को बताता है। यह नामकरण भी गलत है क्योंकि यह किसी साहित्यिक प्रवृत्ति पर आधारित नहीं था। उस काल का नामकरण किसी जाति विशेष के नाम पर उचित नहीं है। इसलिए नाम भी सही नहीं है।
आदिकाल –
आ. हजारीप्रसाद द्विवेदी ने इस काल के साहित्य को अधिकतर संदिग्ध और अप्रामाणिक मानते हुए भी दो विशेषताओं को उजागर किया। उन्होंने इस काल को नवीन ताजगी और अपूर्व तेजस्विता के कारण “आदिकाल” नाम दिया। अपनी धारणा को समझाते हुए उन्होंने कहा कि “वस्तुतः हिन्दी का आदिकाल शब्द एक प्रकार की भ्रामक धारणा की सृष्टि करता है और श्रोता के चित्त में यह भाव पैदा करता है कि यह काल कोई आदिम मनोभावपन, परम्परा विनिर्मुक्त काव्य रूढ़ियों से अछूते साहित्य का काल है। यह ठीक नहीं है। यह काल बहुत अधिक परम्परा प्रेमी, रूढिग्रस्त और सचेत कवियों का काल है।”
आदिकाल वास्तव में परम्परा के विकास का संकेत है, न कि प्रारम्भ का। 7वीं-8वीं शताब्दी के बौद्ध, सिद्ध, नाथ योगियों के साथ-साथ वीर-गाथा काव्यों, अब्दुर्रहमान, विद्यापति तथा खुसरो आदि को इस नाम से समेटा जा सकता है और फुटकर कवियों के नाम गिनाने से बचा जा सकता है। हिन्दी काव्यरूपों और भाषा के अंकुरित होने का भाव भी आदिकाल नाम से मिलता है। इसलिए यही नाम उपयुक्त है। ज्यादातर अध्येता भी “आदिकाल” नाम ही मानते हैं।
भक्तिकाल का नामकरण एवं मतभेद:–
रामचन्द्र शुक्ल ने 1375 से 1700 ई. तक की अवधि को पूर्वमध्यकाल कहा है। इस काल के साहित्य में भक्ति की प्रमुख प्रवृत्ति को देखते हुए इसे “भक्तिकाल” कहा गया है। बाद के सभी विद्वानों ने इसे मान लिया है और आज भी इसे “भक्तिकाल” कहा जाता है।
रीतिकाल का नामकरण एवं मतभेद:–
शुक्लजी ने 1700 से 1900 ई. तक की अवधि को उत्तर मध्यकाल कहा है। रीति (लक्षण) ग्रन्थों के लेखन की परम्परा को देखते हुए इसे ‘रीतिकाल’ कहना तर्कसंगत माना जाता है। इस काल के नामकरण पर विद्वानों में भी मतभेद हैं-
- अलंकृतकाल- मिश्रबन्धु
- रीतिकाल – आ. रामचन्द्र शुक्ल
- कलाकाल – रमाशंकर शुक्ल ‘रसाल’
- श्रृंगार काल – पं. विश्वनाथ प्रसाद मिश्र
अलंकृतकाल :-
मिश्रबन्धुओं ने इस युग का नामकरण ‘अलंकृत काल’ करते हुए कहा है कि – ” रीतिकालीन कवियो ” ने जितने आग्रह के साथ रचना शैली को अलंकृत करने का प्रयास किया है, उतना अन्य किसी भी काल के कवियों ने नहीं। इस प्रवृत्ति के कारण यह अलंकृतकाल है। इस काल को अलंकृतकाल कहने का दूसरा कारण यह है कि इस काल के कवियों ने अलंकार निरूपक ग्रन्थों के लेखन में विशेष रूचि प्रदर्शित की। महाराजा जसवंतसिंह का ‘भाषा भूषण’, मतिराम का ‘ललित ललाम’, केशव की ‘कविप्रिया’, ‘रसिकप्रिया’ तथा सूरति मिश्र की ‘अलंकार माला’ आदि ग्रन्थ महत्वपूर्ण है।
एक अलंकरण की प्रवृत्ति इस काल में विशिष्ट नहीं है, इसलिए इसे “अलंकृतकाल” कहना उचित नहीं है। हिन्दी की उत्पत्ति से आज तक यह प्रवृत्ति जारी है। दूसरा, यह नामकरण सिर्फ कविता के बाहरी हिस्से का संकेत है। इससे बिहारी और मतिराम जैसे रसप्रधान कवि, जिनकी कविता में भाव की प्रधानता है, उनकी कविता के साथ न्याय नहीं हो पाता, क्योंकि इससे कविता के अंतरंग पक्ष भाव और रस की अवहेलना होती है। साथ ही, अलंकृत काल नाम को स्वीकार करने से इस काल की विशिष्ट प्रवृत्ति श्रृंगार और शास्त्रीयता की पूरी तरह से उपेक्षा होती है।
कलाकाल :-
रमाशंकर शुक्ल ‘रसाल’ ने इस काल को ‘कलाकाल’ नाम दिया है। उनका कहना है कि ‘मुगल सम्राट शाहजहाँ का सम्पूर्ण शासन काल कला वैशिष्ट्य था। इस युग में एक ओर स्थापत्य कला का चरम बिन्दु ताजमहल के रूप में ‘काल के गाल का अश्रू’ बनकर प्रकट हुआ तो दूसरी ओर हिन्दी कविता भी कलात्मकता से संयुक्त हुई। इस काल के कवियों ने विषय की अपेक्षा शैली की ओर अधिक ध्यान दिया। उनकी कविता में चित्रकला का भी योग हुए बिना न रह सका। अतः यह कलाकाल है। ”
वास्तव में, “कलाकाल” शब्द का मतलब सिर्फ कविता के बाहरी पहलुओं से ज्ञान होता है। कविता का अंदरूनी हिस्सा अनदेखा रहता है। साथ ही इस युग की व्यापक श्रृंगारिक चेतना को उपेक्षित किया जाता है।
श्रृंगार काल :-
डॉ. विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने इस अवधि को “श्रृंगार काल” कहा। रीतिकालीन कवियों ने श्रृंगार रस के अतिरिक्त वीर रस की कविता भी लिखी है, इसलिए उनका नामकरण इस काल में श्रृंगार रस की प्रधानता को दर्शाता है. हालांकि, यह नाम भी सही नहीं है। रीतिकालीन कवियों ने श्रृंगार के अतिरिक्त वीर रस की कविता भी लिखी है। रीतिकालीन कवियों का मूल स्वर श्रृंगार कभी नहीं रहा। उन्हें अपने आश्रयदाताओं को खुश करना और पैसा कमाने का लक्ष्य था। उन्हें श्रृंगार में रुचि थी, इसलिए उन्होंने श्रृंगारपरक कविताएँ लिखीं। इस काल में श्रृंगार रस की प्रधानता है, लेकिन सर्वत्र रीति पर निर्भर है। वास्तव में, यह नामकरण सही नहीं है।
रीतिकाल :-
आ. रामचन्द्र शुक्लजी ने इस युग का नामकरण ‘रीतिकाल’ किया है। उनका मत है कि- “इन रीतिग्रन्थो के कर्ता भावुक, सहृदय और निपुण कवि थे। उनका उद्देश्य कविता करना था, न कि काव्यांगो का शास्त्रीय पद्धति पर निरुपण करना। अतः उनके द्वारा बड़ा भारी कार्य यह हुआ कि रसों (विशेषतः श्रृंगार रस) और अलंकारों के बहुत ही सरस और हृदयग्राही उदाहरण अत्यन्त प्रचुर परिणाम में प्राप्त हुए।” रीतिग्रन्थों और रीतिग्रन्थकारों की लंबी परम्परा, इस काल में शुक्लजी के नामकरण का आधार है। विद्वानों ने लगभग समान रूप से इस नाम को स्वीकार किया है।
शुक्लजी ने इस नाम को अनेक विद्वानों, जैसे आ. हजारी प्रसाद द्विवेदी और डॉ. नगेन्द्र ने भी स्वीकार किया है। डॉ. भगीरथ मिश्र ने इस युग को ‘रीतिकाल’ कहने का महत्व बताते हुए कहा है “कलाकाल कहने से कवियों की रसिकता की उपेक्षा होती है। श्रृंगार काल कहने से वीर रस और राज प्रशंसा की, किंतु रीतिकाल करने से प्राय: कोई भी महत्त्वपूर्ण वस्तुगत विशेषता उपेक्षित नहीं होती और प्रमुख प्रवृत्ति सामने आ जाती है। यह युग रीति-पद्धति का युग था, यह धारणा वास्तविक रूप से सही है।” इस प्रकार ‘रीतिकाल’ नामकरण अधिक तर्कसंगत एवं वैज्ञानिक प्रतीत होता है।
आधुनिक काल का नामकरण एवं मतभेद:–
सं. 1900 से शुरू हुए आधुनिक युग को आचार्य रामचन्द्र शुक्लजी ने गद्य के पूरे विकास और उसके महत्व को देखते हुए ‘गद्यकाल’ कहा है। आ. हजारीप्रसाद द्विवेदी का मानना है कि प्रेस का उदय ही आधुनिकता का प्रतीक है। श्यामसुन्दरदास इसे ‘नवीन विकास का युग’ कहते हैं। इस काल में गद्य का विकास सबसे महत्वपूर्ण घटना है। यद्यपि इस काल में कविता में भी कई नवीन प्रवृत्तियों का उदय हुआ है, किंतु कविता का विकास गद्य के विभिन्न हिस्सों की तरह नहीं हुआ है।
‘आधुनिक काल’ को आ. शुक्लजी ने तीन चरणों में विभक्त किया है और इन्हें प्रथम उत्थान, द्वितीय उत्थान तथा तृतीय उत्थान कहा है। अधिकांश आधुनिक विद्वान इन्हें ‘भारतेन्दु युग’ अथवा ‘पुनर्जागरण काल’, ‘द्विवेदी युग’ अथवा ‘जागरण-सुधार काल’, ‘छायावादी युग’ तथा ‘छायावादोत्तर युग’ में प्रगति, प्रयोग काल, नवलेखन काल मानते है।
आधुनिक युग की धारा द्विवेदी युग तक सीधी रही, लेकिन छायावाद के उदय के साथ ही बहुत से अलग-अलग वाद और प्रवृत्तियां पैदा हुईं। आधुनिक युग की प्रगति को किसी एक वाद या प्रवृत्ति से सीमित नहीं किया जा सकता क्योंकि यह इतनी व्यापक और विविध है। इसलिए, आदिकाल की तरह इस युग को भी ‘आधुनिक युग’ कहना अधिक तर्कसंगत लगता है।
संदर्भ ग्रंथ:-
- हिन्दी साहित्य का इतिहास- आचार्य रामचंद्र शुक्ल
- हिन्दी साहित्य का इतिहास- सं. डॉ. नगेन्द्र
- हिन्दी साहित्य : उद्भव और विकास- आ. हजारी प्रसाद द्विवेदी
- हिन्दी साहित्य का आदिकाल- आ. हजारी प्रसाद द्विवेदी
- हिन्दी साहित्य युग और प्रवृत्तियाँ- डॉ. शिवकुमार शर्मा
- हिन्दी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास- डॉ. रामकुमार वर्मा
- हिन्दी साहित्य का वैज्ञानिक इतिहास- डॉ. गणपति चंद्र गुप्त
- हिन्दी साहित्य का इतिहास- डॉ. लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय
- हिन्दी साहित्य का दूसरा इतिहास- डॉ. बच्चन सिंह
- आधुनिक हिन्दी साहित्य का इतिहास- डॉ. बच्चन सिंह